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________________ ४१४ ] अ - [ व्याख्या कोष १ - अकाम निर्जरा (१) निष्काम या अनियाणा वाली निर्जरा । अर्थात् किसी भी प्रकार के फल अथवा बदले की भावना और इच्छा नही रखते हुए एकान्त आत्म हित के लिये की जाने वाली तपस्या और सेवा कार्य आदि । (२) अनिच्छा पूर्वक सहा जाने वाला कष्ट भी जैन दर्शन में " अकामनिर्जरा" कहलाता है । २----- अणगार साधु अथवा महापुरुष, जो किसी भी प्रकार का परिग्रह नही रखता हो 'एव अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह आदि व्रतो का मन, वचन और काया से परिपूर्ण रीति से पालन करन वाला हो । ३- अतिचार ऐसी सामग्री इकट्ठी करना अथवा ऐसा परिस्थिति पैदा करना, जिससे कलिये हुए व्रत में आर ग्रहण किये हुए त्याग में दाप पैदा होने की सभा - - वना हो, अथवा अश रूप से दोप पैदा हो गया हो । ४- अधर्मास्ति काय जिन छ द्रव्यो से यह सपूर्ण ब्रह्माठ अथवा लोकाकाश वना है, उनमें से एक दूथ्य । यह दूव्य जावा का आर पुद्गलो को "उनकी ठहरने की स्थिति " में ठहरने के लिये मदद करता है । ५ - अनार्य मनुष्यो की ऐसी जाति, जिनमें मद्य, मास, शिकार आदि व्यसनो की भरमार हो और जो दया, सत्य आदि में धर्म नही मानते हो । ६ ---- अनासक्ति नीति और कर्त्तव्य की ओर पूरा पूरा ध्यान देते हुए जीवन में कुटुम्ब परिग्रह, यश, सन्मान और अपने कार्य में जरा भी माह ममता नही रखना सथा किसी भी प्रकार से प्रतिफल की भावना नही रखना ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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