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________________ सन्दानुलक्षी अनुवाद] [४०३. ८९७-( शिष्य ) अप्रमादी होता हुआ आचार्य की सेवा-भक्ति करे । ' ८९८-जो सुख का लानवाली है, अनुत्तर-श्रेष्ठ है और निर्माण के गुणो को देनेवाली है, ऐसी महान् धर्म-धुरा को धारण करो। ८९९-विद्वान् “अति परिचय” को सूक्ष्म शल्य रूप और कठिनाई से दूर करने योग्य समझ कर उसे छोड दे, सम्बन्ध-विच्छेद कर ले। ९००-शरवीर दृढ पराक्रमशील होते है । ९०१-जैसे श्येन पक्षी ( वाज पक्षी ) बटेर को पकड लेता है, वैसे ही आयुष्य का क्षय होते ही यह जीवन टूट जाता है। ९०२---यह मेरे लिये निश्चय ही कल्याण कारी है, ऐमा समझ कर प्रमाद याने असत आचरण नही करे। ९०३-जा विना धर्म किये ही मृत्यु के मुख में चला गया है, वह पर लाक में दुःखा होता है। ९०४-वहा मनुष्यो के लिये चक्षु रूप है, ज्ञान रूप है, जो कि अभिला षाओ का ( इच्छाओ का ) अत करने वाला है। ९०५ सयमी निरवद्य आचार का ज्ञान करके तदनुसार आचरण करे । ९०६-शका के स्थान को छोड़ दो। ९०७-जैसे सग्राम के अग्र भाग पर शत्रु का दमन किया जाता है, वैसे ही इन्द्रियों के विषयो का भी दमन करो। -९०८-अखड चारित्र रूप प्राकार ( कोट, गढ ) वाले हे श्री सघ रूप नगर ! तुम्हारा कल्याण हो ! मंगल हो । ९०९-जिसके साधु साध्वी रूप हजारो पत्र है, ऐसे श्री सघ रूप कमल का भद्र हो, कल्याण हो, जय विजय हो। ९१०---सयम और तप ही जिसके मध्य भाग - के गोल अवयव है, ऐसे सम्यक्त्व रूप चक्र वाले श्री. संघ को नमस्कार हो । ;
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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