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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद [३९९ _' नही हो। , ८६४ (हे आत्मज्ञ ! ) सम्पूर्ण ससार के प्रति तू समतापूर्वक देखने वाला हो। ८६५ -सभी (कौटुम्बिक प्राणी) तुम्हारी रक्षा करने के.लिए अपर्याप्त - है-असमर्थ है, और तुम भी उनकी रक्षा करने के लिये समर्थ १८६६—सभी प्रकार के गायन' विलाप: स्वरूा । सभी प्रकार के । नृत्य-खेल विडम्वना रूप है। ८६७-सभी मुकृत्य मनुष्यो के लिये ( अच्छा ) फल लाने वाले .. होते हैं। ', ४६८: सुख शीलता युक्त होता हुआ, क्रोध नहीं करता हुआ एवं माया ___ "प्रपंच रहित होता हुआ विचरे। - . -८६९-झूठ ( से शुरु होने ) वाला वाक्य नहीं बोले, यही जितेन्द्रिय वालो का धर्म है। १८७० श्रमण-धर्म का आचरण करना अति कठिन है । ८७१---सामायिक से सावद्य-योग की विरति होती है। १८८७२-जो (महात्मा) अपनी आत्मा के लिये किसी भी प्रकार का भय नहीं देखता है, यही उसके लिये सामायिक कही गई है। .८७३-- ( इस ससार, में ) शरीर सम्वन्धी और मन सम्बन्धी अनन्त प्रकार की वेदनाएं है। ८७४-सावद्य-योग का परित्याग करता हुमा और इन्द्रियों पर . सुसमाधि वाला, होता हुआ भिक्षु विचरे। .. . ८७५-मुनि सावद्य ( पापकारी ) नही बोले। ८७६- ( मुक्त जीव ) शाश्वत् अव्यावाघ सुख को प्राप्त करके सुखी रूप से स्थित है। १.८७७- (हे उच्च पुरुषो । ) शाश्वत् रूप से परिनिवृत्त होऔं । ८७८-पडित पुरुष व्याकरण आदि विद्या का अध्ययन करें।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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