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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३९७ ८४९ – विविध धर्म मार्ग का अनुसरण करनेवाला देवताओ में उत्पन्न होता है। ८५०- ( मुक्त आत्माएँ ) सभी सुख प्राप्त करती हुई अनागत मार्ग में ( शाश्वत् स्थान मे ) स्थित हो जाती है । ८५१ - सम्पूर्ण ससार मे जो काम भोग है, उनको पडित पुरुष भली"भाति समझे + - , 37 21 11 -7. ८५२ - सभी प्रकार के सग से विनिर्मुक्त होती हुई सिद्ध आत्मा रज रोहित ( सर्वथा कर्म रहित ) हो जाती हैं। ८५३ - जो सभी प्रकार की संगति से दूर है, वही भिक्षु है । " Se ८५४ -- सभी प्रकार के आरम्भ का परित्याग करना ही निर्ममत्व है । ८५५ – स्त्रिय) से सभी इन्द्रियो द्वारा अभिनिवृत्त ( दूर ही ) रहना चाहिये । ८५६ - सभी अनर्थों को छोडता हुआ, आकुलता रहित होता हुआ भिक्षु कंपाय रहित होवे । 2 - ८५७ –– सभी आभूषण भार रूप है और सभी काम भोग दुख का लानेवाले है । ८५८ - सभी प्राणियो को अपनी आयु ( जीवन ) प्रिय है । ८५९ - ( मोक्ष-वर्णन में ) सभी स्वर ( शब्द ) शक्ति हीन हो जाते है, तर्क वहाँ प्रवेश नही कर सकता है, बुद्धि वहाँ अग्राहिका हो जाती है और कोई उपमा भी उसके लिये विद्यमान नही है । ८६० - सभी प्राणियो को अपना जीवन प्यारा है । 1 ८६१ - मोक्ष मे जाने की इच्छावाला सभी काम-विषयो को देखता हुआ उनमें लिप्त नही होता है । + ८६२ - सभी भूतो के साथ ( जीवो के साथ ) दया वाला और अनुकम्पा वाला होता हुआ सयमो ब्रह्मचारी और क्षमाशील होव । ८६३ -- आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीता हुआ ! ही हैं पर विजय प्राप्त की जा चुकी है । ( सब
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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