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________________ अन्दानुलक्षी अनुवाद ] [३८९ ५८३-हे गौतम ! यह तुम्हारा शरीर टूट जाने वाला है. विध्वस हो जाने वाला है, इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। ७८४- ( मुमुक्ष ) समाधि मय इन्द्रियो वाला होता हुआ विचरे, क्योकि आत्म-हित निश्चय ही बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। ७८५---जो वीर होते हुए भी असम्यक्त्वदर्शी है, उनका पराक्रम • . अशुद्ध है। ७८६-जो वीर है आर सम्यक्त्व दर्शी है, उन्ही का पराक्रम शुद्ध है। ७८७-वीर आत्मा सदा आगम अनुसार ही पराक्रम करता रहे। ७८८ --जैसे समुद्र में ( अथवा जल-स्रोत में ) सूी काठ चक्कर खाया करता है, वैसे ही अविनीत आत्मा भी ससार-समुद्र में डूब जाता है। ७८९--निर्जरा का आकाक्षी सहनशील होवे । ७९०-यावृत्य ( सेवा-भाव ) मे तीर्थकर नाम गोत्र-कर्म , का वध ' पड़ता है। ७९१--वैर-भाव में अनुगृद्ध आत्मा कर्मों का समूह आकर्षित करता है। - ७९२-वैर-भावना मे बधे हुए नरक को प्राप्त करते है । ७९३--वैर का अनुवध भहान् मय वाला होता है । ' -- ७९४-अपने मोह को विछिन्न कर दो । ७९५-वमन किए को पुन भोगना चाहता है, इसकी अपेक्षा तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर होगा । ७९६-त्यागे हुए को जो पुनः नही ग्रहग करता है, वही भिक्षु है । . ... .. ... स ___०९७-जैसे शकुनि पक्षा अपनी लगी हुई धूल को झाड देता है वमे ही 1 , तपस्वी साधु भी कर्मों का क्षय कर देता है । · ७९८-स्वदुः ख से ही मूढ़ विपरीत स्थिति को प्राप्त करता है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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