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________________ शेब्दांनुलक्षी अनुवाद ] [ ३७९ . ७०३ - मुनि मौन को ग्रहण करके शरीर मे रहें हुए ( आत्मास्य) क - को कपित कर दे | 1 4 ७०४ -झूठ वाली भाषा निरर्थक है । . ७०५ -- झूठ का वर्जन कर दो और अदत्ता दान को ( चोरी को ) छोड दो । ७०६ - आत्मा को मोक्ष में ले जाने की इच्छा वाला मुनि झूठ नही बाले । ७०७- - भिक्षु झूठ का परिहार कर दे । ७०८ - निर्दोष भिक्षा देने वाला और निर्दोष भिक्षा पर जीवन निर्वाह करने वाला, दोनो ही सुगति को जाते हैं । ७०९ -- यह काम - भोग नीचता की जड है । ७१० -- मेधावी पुरुष (ज्ञान शाला ) लोभ से और मद से अतीत होते है, ( रहित होते है ) । ७११ - आत्मा का गोपने वाला ( दमन करने वाला) वायु द्वारा मेरू के अकपन की तरह परिषहो को अविचलित होकर सहन करे । ७१२ - मेधावी धर्म की समीक्षा करके पाप को दूर से ही छोड़ दे । ७१३ – मेघावी अपने गृद्धि - भाव को हटावे । ७१४ - मेधावी धर्म को जाने । ७१५ – मोक्ष के सद्भूत ( यथार्थ ) साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । ७१६ - दुष्ट आत्मा झूठ के पीछे और पहिले एवं प्रयोग काल में ( तीनो ही काल मे ) दुखी होता है । निश्चय ही मोह का घर हैं । ७१७ - तृष्णा ७१८ – मोह से गर्भ को और मृत्यु को प्राप्त होता है । -- ,७१९ -- मोह हा तृष्णा का स्थान है । र
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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