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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद] [३७७ ६८४-~माया उच्च गति का प्रतिघात करने वाली है और लोभ से - दोनो लोक में भय रहा हुआ है। ६८५---माता, पिता, पुत्र, वधु, भाई, कोई भी मेरी रक्षा के लिये समर्थ नही है। ६८६-माया मित्रो का नाश करती है। ६८७-माया-मृपावाद लोभ के दोपो को बढाता है । ६८८-माया-मृपावाद को छोड दो। ६८९-माया-मृषावाद को छाड़ दो। ६९०-जो माता पिता द्वारा मोह ग्रस्त हो जाता है, उसके लिये पर लोक में सुगति सुलभ नही होता है । ६९१---माया को सरल भाव से जीती। ६९२----सदा के लिये माया को छोड दो। ६९३- विवेकी ) माया की सेवना नहीं करे और लाभ को छोड़ दे । ६९४-~त्यागी हुई (भोग्य वस्तुओ) को पुन भोगने की इच्छा मत करो। ६९६-मिथ्या दृष्टि वाले अनार्य होते है और वे ससार में चक्कर लगाया ही करते है। ६९७-प्राणियो पर मैत्री-भावकी कल्पना करो। ६९८:–समयानुसार परिमित भोजन क ६९९---परस्पर मे कथा-वार्ताओ द्वारा मनोरजन नहा करे । ७०१-मुनि महकार नहीं करता है। ७०२-हे मुनि | किसी की भी हिंमा मत करो, इसमें महान् भय रहा हुआ है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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