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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ६६७-यह ससार मृत्यु से पीड़ित है और बुढापे से घिरा हुआ है। - ६६८- अंतिम काल में मृत्यु मनुष्य को निश्चय ही ले जाती है, उसके माता, पिता, भाई, कोई भी अग रूप से भी रक्षक नही होते है। ,, ६६९--- (मूर्ख) मद्य, मास, लशुन खा करके अनर्थ वास का (नीच गति १ 'की) परिकल्पना करते है। ६७.-निर्जराप्रेक्षी मध्यस्थ (तटस्थ) रहता हुआ समाधि का अनुपा लन करे। ६७१-दूसरे तीर्थकर से लगा कर तेइसवें तार्थकर तक के शासन काल की जनता-सरल और बुद्धिशालिनी थी। । ६७२--जीवन पर्यंत दृढ व्रत शाली हाता हुआ मनगुप्ति, वचन गुप्ति और काया गुप्ति वाला एव जितेन्द्रिय हावे । . ६७३–मन, वचन और काया द्वारा न - तो आरभी हो आर न परि ग्रही हो। १६७४~~यह मन साहसिक और भयकर दुष्ट घोडा रूप है, जो कि निरतर दौडता रहता है। । ६७५-~~-जो मन, वचन और काया द्वारा सवृत्त है, व्रत'शील' है, वही भक्षु है । ६७६-बाल-आत्मा ममता से डूबता है । ६७७-ऋषि महान् प्रसन्न होते हैं, वे शोक रहित होते है। ६७८-नरको दुख वेदनाएँ महान् भयकर और भीषण होती हैं। ६७९-ज्ञानी मधुकर के समान होते है । .६८०-मनुप्यत्व निश्चय ही सुदुर्लभ है। ६८१-मान विनय का नाश करने वाला है। ६८२-मान को मृदुता . जाते । ६८३-छल कपट के स्थान को छाड दो।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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