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________________ मन्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३७३ ६५१ – भावना के योग से शुद्ध आत्मा जल मे नाव की तरह कहा गया है । ६५२ -- भावो की विशुद्धि से निर्वाण को प्राप्त होता है । 1 " -६५३–कोई दूसरा बोलता हो तो बीच मे नही वोले । ६५४ - हितकारी और सत्य हो वोलना चाहिए । ६५५ - भिक्षावृत्ति सुखो को लाने वाली है । ६५६--- भिक्षु सत्य और मधुर बोलने वाला होता है । ६५७ -- (भोगो की तल्लीनता) बार बार दुखो का ही घर है, और ज्यों ज्यो दुख, त्यो त्यो अशुभ ( विचार बढते ही रहते है ) 1 1 f ६५८ - भोगे हुए भोगो का परिणाम सुन्दर नही होता है । ६५९--अनासक्त रूपसे भोजन करता हुआ मेघावी कर्मों से लिप्त नहीं होता है । ६६० – दोष से वर्जित भोजन करो । -६६१ - भूतो के साथ याने प्राणियो के साथ वैर भाव मत रक्खो । ६६२-प्रज्ञ पुरुष जीवघातिनी (मर्मान्तक ) भाषा नही वोले । ६६३- ये भोग कर्मों को सगति कराने वाले होते है । ६६४ --- भोगे हुए भोग विष फल के समान है, कहुए परिणाम वाले है बार निरन्तर दुखो को लाने वाले है । ६६५ -भोगी ससार में भ्रमण करता है और अभोगी मुक्त हो जाता है । म ६६६ - (मुमुक्षु) कुशीलो के सपूर्ण मार्ग का परित्याग करके महा निर्ग्रथों के मार्ग - अनुसार बोले ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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