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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद] [ ३६७ .. ६०८-हे पुरुप । अपनी आत्मा में ही अनुरक्त हाओ और इसी रीतिसे मुक्त हो सकोगे। ६०९-हे पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो, बाह्य मित्र की इच्छा __ क्यो करते हा? ६१०-हे पुरुप ! सत्य का ही सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त करो। ६११-पूजा का आकाक्षी और यश का कामी बहुत पाप का उपार्जन करता है .६१२--जिसने पूजा से मुंह मोड़ लिया है, वही सुसमाधि में स्थित है । , ६१३-राग वृत्ति से सवधित मूर्छा दो प्रकार की है --माया सबपी और लोभ सवधी। ६१४-साधुओ के लिये पांच प्रकार के स्थान कर्तव्य रूप से कहे गये -, है-सत्य, सयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य । १८.६१५–निधियां पाच है -पुत्रनिधि, मित्रनिधि, ज्ञाननिधि, धननिधि - और घान्य निधि ।। 1..६१६-~-पाचो इन्द्रियो का निग्रह करने वाले ही धीर पुरुप कहलाते है । ६१७-आचार पाच प्रकार का कहा गया हैः-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, 1:.. चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । - - - - 15 ६१८--पाच प्रकार के काम-भोगो को सदैव के लिये छोड दो। ।। ६१९-व्यवहार पाच प्रकार का हैः-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा . और जीत । । - - , ६२०-पवित्रता पाच प्रकार की कही- गई है, पृथ्वी मिट्टी से जनित - पवित्रता; पानी से, अग्नि से, मत्र से और ब्रह्मचर्य से ।, ।। ६२१--पडित और प्रवीण पुरुष भोगो से निवृत्त ही होते है । ६२२—सम्यक्त्व दर्शी वीर पुरुष नीरस और निस्वाद मोज़न का आहार __ - ' करते है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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