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________________ [ ३६५ गन्दानलक्षी अनुवाद ] - ५९० - पाप कर्म न तो करे और नहीं करावे । ५९१ - पाप दृष्टि वाला विनष्ट हो जाता है । ५९२ - रौद्र भावना वाले पाप कर्म करते है और तीव्र ताप वाले नरक मे पडते है । ९९३ - मेधावी अत्म ध्यान द्वारा ही पापो को दूर कर देता है । ५९४ - पाप से आत्मा को लौटा लो । ५९५ – आरभ के काम पाप को पैदा करने वाले है और अतमें दुख का स्पर्श कराने वाले ही है । 1 ५९६ = -- देखो | लोक महान् भय वाला है ५९७ – सम्यक् दर्शनी विचार करे, और आसक्ति तथा मोह को दूर करे 1 ५९८ - निंदा मत करो । ५९९ –– जो प्रिय करने वाला है और प्रिय बोलने वाला है, वही शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता रखता है । ६०० – महात्मा के लिये न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय - होता है । ६०१ - किसी का भी प्रिय अप्रिय ( राग द्वेष के कारण से ) मत करो । ६०२ - प्रिय अप्रिय सभी शाति पूर्वक सहन करो । ६०३ – जिसने आश्रव का रोक दिया है और जो इन्द्रियो का दमन करने वाला है, उसके पाप कर्म नही वधा करते है । ६०४ - मुनि पृथ्वी के समान धैर्यशाली होवे । ६०५—इस ससार में मनुष्य अनेक प्रकार के अभिप्राय वाले होते हैं । ६०६—जो बार बार इन्द्रियो के भोगो का आस्वादन करता है, वह कुटिल आचरण वाला है । ६०७-- प्रथम तीर्थकर के युग मे जनता सरल और जड थी, जब कि अतिम तीर्थकर के युग में जनता वक्र और जड़ है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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