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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद] । ५७२-जो सिद्धि पथ, महान् विधि रूप है. न्याय युक्त है, ध्रुव है. उसी पर विनात वीर चलता है। ५७३–पूर्ण बुद्धिमान् सदा यत्न शील होता हुआ समता 'धर्म का उपदेश' -'' करता रहे। .५७४-जो द्वेष पूर्ण चित्त वाला है, वह कर्म को इकट्ठा करता है । - ५७५--जो साधु प्रमादी है, वह गृहस्थ अवस्था में ही रहा हुआ है। ५७६-तप-सयम में पराक्रम वतलाओ। । - ., ५७७-ज्ञानी दूसरो के लिये भोग-उपभोग की क्रियाएं करना छोड दे। . ५७८-तुम्हारा शरीर निश्चय ही जीर्ण होने वाला है, इसलिये है . गौतम । समय मात्र का भी प्रमाद मत करो - । ५७९--जो काम-भोगो को नहीं छो ते हैं, वे रात दिन परिताप पाते - हुए परिभ्रमण करते रहते है। ५८०--जो परिपह रूप शत्रु को जीतने वाले है, जो मोह को नष्ट करने वाले है, वे ही जितेन्द्रिय है। ५८१- असयती के लिए वैर ही बढता है। . , . . ५८२-काम-मोगो मे रही हुई तृप्णो हटाई जाय । ५८३—यह आत्मा अनेक बार इधर उधर भागते हुए पटका गया, फाडा गया, छिन्न भिन्न किया गया । , ", ।, - ५८४-मद वुद्धि वाले, प्राणियो की हिंसा करते है । ५८५-स्थितप्रज्ञ आत्मा प्राणातिपात से विरतिवाली होती है। ५८६-प्राणी ही प्राणियो का क्लेश पहुँचाते है। ५८७-प्राणियो का वध घोर पाप है। ०५८2-जा प्राणियो की हिंसा नही करता है, उस के कर्म. इस प्रकार दूर हो जाते है, जसे कि ढालू जमीन से पानी दूर हो जाता है। ५८९--प्रायश्चित्त करने से पाप-कर्मों की विशुद्धि होती है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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