SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद] ५३६-मुनि बहुत समय तक नही हसे । । ५३७–सम्यक् दर्शन से रहित का सम्यक् ज्ञान नहा होता है। ५३८--विना पूछे कुछ भी नहीं बोले । .५३९-'विना आज्ञा के ( किनी का ) तृण मात्र भी नहा लेवे । ५४०-वीर पुरुष न ता रति ( राग) रखता ह और न अरेति (द्वेष) ही रखता है। ५४१- ( साधक ) धर्म को सुन्दर समझ कर स्त्रियो मे गृद्ध नही हावे ५४२-निHथ सरल दृष्टि वाले होते है। ...... ५४३-निग्रंथ धर्म जीवी होते है । ५४४---मेधावी ( गुरु जनो की ) आज्ञा का उत्लघन नही करे। ५४५-- ( आत्मा हितैपी ) बहुत निद्रा नही लेवे। ~, . ५४६-भिक्षु निद्रा और प्रमाद नही करे। ५४७-ममता रहित और अहकार रहित होओ। . . . , ५४८-ममता रहित और अहकार रहित होता हुआ भिक्षु जिन आजा नुसार विचरे। ... . ५४९---निरर्थक कार्यों को छोड दो। . ५५० --- (मुमुक्षु) आश्रव रहित होता हुआ, कर्मों का सम्यक् प्रकार से क्षय करके, विपुल, उत्तम और ध्रुव स्थान का प्राप्त होता है ५५१--स्वल्प को दीर्घ रूप नही दे । ५५२-निर्वाण वादियो में ज्ञात पुत्र महावीर स्वामी सर्व श्रेष्ठ है। ५.३-मुनि निर्वाण को ही साधे। - - 1 . .. . ५५४-वैराग्य शील हाकर विचरने वाला स्त्रियो के प्रति रति-भावन्य नही लावे । ५५५, अपनी प्रशसा और पूजा प्रतिष्ठा से दूर ही रहो !
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy