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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] ५१७ - सब जगह किसी भी पदार्थ के प्रति लालायित मत हो । ५१८ – पर ब्रिद्रो के ढूढने वाले मत होओ । ५१९– हे सत । हे शीलवन्त । हे बहुश्रुत । तुम्हारे लिये मृत्यु नादि दुःख नहीं होते हैं । ५२० - ( ज्ञानी जीवो को ) व तो मारे और न घात करे । ५२१ - प्राणियो के प्राणो को मत हणो । 1 [ ३५७ ५२२ – सपूर्ण लोक में किसी की भी हिंसा मत करो । ५२३ - ( विवेकी ) प्राणि-वध की अनुमति नही दे, क्योकि इससे सभा दु.खो का कभी भी नाश नही होता है । ५२४ – मुनि त्रोध करने वाले नही होते हैं । -५२५ – ब्रह्मचर्य में रत होता हुआ अति मात्रा में भोजन नहीं करे । ५२६ - कोई भी वात अति विस्तृत रूप से नहा कहे । ५२७ - जैसे हाथी कीचड़ वाले तालाव मे फस जाता है, वैसे हो हम काम-भोगो में गृद्ध हैं । -५२८–सम्यक् दर्शन से पतित हुए प्राणी सम्यक् ज्ञान से भी भ्रष्ट हो जाते हैं । ५२९ -- ज्ञान को संपन्नता से जीव सभी पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न कर लेता है । मयमी नाना रुचि का और विषयो की अभिलाषा को छोड़ दे । ५३०. 3 ५३१ - ज्ञाना कमा भी प्रमाद नही करे । . ५३२ -- ज्ञानी खेद नही करे । ५३३ - ज्ञान द्वारा ही पदार्थ जाना जाता है । ५३४ - ज्ञान से ही मुनि होता है और तप से ही तपस्वी होता है । ५३५ -- सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र नहीं हो सकता है
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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