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________________ जन्दानुलक्षी अनुवाद ] [३५५ ४९८-असभ्यता के साथ मत बोलो। ... .. . ४९९ --- गुरुकी हीलना-निंदा करने से कभी भी मोक्ष नही मिल सकता है। ५००-बाल जन, अज्ञानी अपने कार्यों द्वारा कर्म का क्षय नहीं कर ' सकते हैं। ५०१-काम-भोग वाले प्राणी शाति (समता) को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। “५०२-(ज्ञानी) पूर्व काल में प्राप्त प्रशसा आदि की इच्छा नही,करे। ५०३-(विवेकी) वेश्या आदि के मकान के आसपास नही जावे आवे । ५०४ - कर्मों से अमुक्त के लिये निर्वाण नही है। - ५०५-सम्यक् दर्शन के अभाव में चारित्र नहीं होता है । ५०६-जितनी हानि अपनी पापी आत्मा स्व के लिये कर संकती है, - उतनी कठ का छेदन करने वाला शत्रु भी नही कर सकता है। ५.७-जो सुख शील गुण में रत भिक्षुओ को प्राप्त होता है, वह सुख काम भोगो मे राग रखने से नहीं मिल सकता है। .. ५०८-वाह व्यक्तियो को पराजित मत करो। ५०९-अहित करने वाली भाषा मत बोलो। ५१०-मेधावी विनय शील होता है । ५११-हे संशय से अतीत । तुम्हे नमस्कार हो। ५१२-रूप-विषयो में मन को सलग्न मत करो। ५१३-दूसरे को त्रास मत दो। ५१४ - संयती पूजा और निंदा से (चचले) नहीं होवे । ५१५ पूछने पर सावद्य नहीं बोले । “. ५१६-अपने आप को पडित मानने वाले वाल जन- शरण " रहित . . होते है । ..
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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