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________________ IN शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३५१ ४६९ - दुराचारी, प्रतिकूल वृत्तिं वाला, और वाचाल वहिष्कृत किया जाता है । - ब्रह्मचारी को देवता, दानव और गन्धर्व भी नमस्कार करते है । ४७० ४७१ - शरीर में उत्पन्न होने वाले दुःख पूर्वकृत कर्मों के ही 1 ४७२ - दंड दो प्रकार के कहे गयें हैं, वे इस प्रकार है : और २ अनर्थ दंड । - ४७३- द्वेष वृत्ति वाली मूच्छी दो प्रकार की है ~ १ क्रोध और २ मान । १ महाफल हैं । - १ अर्थ दंड ४७४ - द्वेष दुर्गति का बढाने वाला है ४७५——आत्मा केवली के कहे हुए धर्म को सुनकर दो प्रकार से प्राप्त करता है: - १ क्षय रूप से और २ उपशम रूप से ! ४७६-दर्शन की संपन्नता से ( आत्मा ) सासारिक मिथ्यात्वक करता है । ४७७ - दर्शन के अनुसार ही श्रद्धा रक्खो । छेदन ध ४७८-- धर्म रूपी धुरा के अगीकार कर लेने पर धन से क्या (तात्पर्य - है ) ? ४७९ - जो धर्म- ध्यान में रत है, वही भिक्षु है । ४८१ – धर्म का मूल विनय है । ४८२-धर्म को समझने वाला सरल हृदयी होता है । ४८०-धर्म के प्रति श्रद्धा के जम जाने पर साता वेदनीय जनित सुखो पर विरक्ति पैदा हो जाती है। ४८३ – वर्मो का मुख ( आदि स्त्रोत ) काश्यप-, ( श्री ऋषभदेव(स्वामी) है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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