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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३४१ ३८८—जो संसार का परित्याग करके भी गृहस्थ जैसे ही कर्म करता है, वह ससार से मुक्ति पाने के लिए पार नही जा सकता है । ३८९–सिद्ध प्रभु संभी दुखो से पार हा गये हैं तथा, जन्म, जरा,मृत्यु और बधन से विमुक्त हो गये है । -३९० - बहुत निद्रा मी मत लो । IK ३९१-छिन्न शोक वाला, कपाय रहित ( आत्मा ) धान्य के प्रति ( सूअर की तरह) काम- -भोगो की तरफ आकर्षित नही होवे । `३९२ – मर्मघाती बाक्य नही बोले । -३९३—न क्रोव करें और न मान करे । 7 -३९४ – ( अनासक्त महापुरुष ) न तो जीवन की आकाक्षा करे और न मृत्यु की ही आकांक्षा करे I ३९५ - ( ज्ञानी) तो अपने का तुच्छ समझे और न अपनी प्रशंसा करे । '३९६—–—निग्रथ स्त्रियो के मनोहर और मनोरम अंगोपाग रूप इन्द्रियो को न तो देखे और न उनका चिंतन करे । - ३९७ – निर्ग्रथ स्त्रियो के साथ पूर्व काल में भोगे हुए भोगो को याद नही करे । ३९८ – निग्रंथ सरस आहार नही करे । ३९९--निग्रंथ शृंगार वादी नहीं हो । f ४००--तप द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा मत करो २४०१ – सम्यक् ज्ञान " सुलभ रीति से प्राप्त होने योग्य" नही कह । गया है । त — ४,२–तीने प्रकार की गुप्तियाँ कही गई हैं, मन गुप्ति, वंचन गुप्ति, और काया गुप्ति ३ ४०३ - तीन प्रकार की आत्माएं मुश्किल से समझाये जाने योग्य है. --१ दुष्ट, (२) मुंडे और ( ३ ) दुराग्रही |
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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