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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] ३१४-यत्ना पूर्वक बैठे और परिमित बोले। , . . .३१५---जब तक वुढापा पीड़ा पहुंचाना प्रारम नही कर दे, तब तक-धर्म . का आचरण कर लो। ३१६–बुढापा और मृत्यु के चक्कर में फसा हुआ, सदैव मूढ बनता हुआ मनुष्य, धर्म को नहीं समझ सकता है। ३१७-बुढापे को प्राप्त हुए जीव के लिये निश्चय ही रक्षा का साधन । नही है । ३१८-जैसे लोहे के, जौ चवाना अत्यंत कठिन है, उतना ही कठिन सयम मार्ग है। ३१९-जैसा कर्म किया है, वैसा ही उसका भार समझो। . ३२०-जैसे किपाक फल मनोरम होते है, यही उपमा फल के लिहाज से काम भोगो की समझनी चाहिये। ३२१-यथा योग्य स्वीकार करके आलाप-सलाप करें, बात चित करे। ३२२-ज्यो ज्यो लाभ, त्यो त्यो लोभ, लाभ लोभ की वृद्धि करता रहता है। ३२३-जैसे समुद्र मध्य में शरण भूत द्वीप है; वैसे ही ससार समद्र में अरिहंतो द्वारा उपदिष्ट यह धर्म है। ' -३२४-जिस श्रद्धा के साथ धर्म मार्ग पर-निकले, उसी अनुसार - उसका - . अनुपालन करे. . . . . . . . . . ३२५ ---जिस श्रद्धा के साथ निकले, उसी के अनुसार अनुपालन करे । ३२६-काम-भावना से जिस जिस नारी की ओर देखोगे, उतनी ही बार आत्मा अस्थिर होगी। । ३२७-कर्म-फल भोगने के समय स्त्री और पुत्र रक्षक नहीं हो सकेंगे। ३२८-जब तक इन्द्रियां हीन नही होवें; तब तक धर्म का आचरण कर लो।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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