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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३२९ ३०१ - विवेकी, छन्न याने माया, प्रशस्य याने लोभ, उत्कर्षं याने मान, और प्रकाश याने काव नही करे । ३०२- भाव छ. प्रकार के हैं; १ - औदयिक, २ औपशमिक, ३ क्षायिक, ४ क्षायोपशमिक, ५ पारिणामिक और ६ सोन्निपातिक '३०३—— द्वेष को काट डालो और राग का हटा दो । - ३०४ - शीघ्र ही मोक्ष में जाने की इच्छा रखने वाला शोक - सताप को काट डाले, (इन्हें) दूर कर दे । ३०५ - ( आत्मार्थी ) छिन्न शोक वाला, ममता रहित और अकिंचन धर्म वाला होवे । ज ३०६ -- जो जगत् के नाथ है, जो जगत् के बघु है, जो जगत के पितामह है, ऐसे भगवान् महावीर स्वामी जय शील हों । र 1 ३०७ - जहाँ एक सिद्ध है, वही अनेक याने अनत सिद्ध भी है । . ३०८ - जिस अर्थ को तुम नही जानते हा, उसको "ऐसा ही है" इस प्रकार मत बोलो । ३०९–यहाँ पर जन्म का दुख है जरा याने वुढापे का दुःख हैं, इस प्रकार ससार निश्चय ही दुखो का समूह ही है । ३१० – ससार के गुरु, महान् आत्मा, प्रभु महावीर जय - शील हो । सदैव इनकी जय-विजय हो । २३११ - जगत् की जीव-योनि के ज्ञाता, जगत् गुरु, जगत् को आनद देने . वाले भगवान् महावीर स्वामी जयशील हो । 1, ३१२ –– सभी ज्ञान-विज्ञान के उत्पादक और तीर्थंकरो मे चरम तीर्थंकर; - ऐसे देवाधिदेव महावीर स्वामी जय शील हो । - MP ३१३ – निर्मल सम्यक्त्व रूप विशुद्ध चादनी वाले हे सघ रूप चन्द्रमा ! तुम्हारी जय हो । विजय हो ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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