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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [३ . २८७-चार प्रकार के श्रमणापासक याने श्रावक कहे गए है -१ दर्पफ समान, २ पताका समान, ३ स्थाणु समान, आर ४ खर कंटक 'समान । २८८-चार प्रकार के श्रमणोपासक याने श्रावक कहे मए है:-मका पिता समान, २ भाई समान, ३ मित्र समान और ४ श् समान । . २८९-चार प्रकार के शूर कहे गये है --१क्षमा शूर, २ तप शूर, ३ दान शुर और ४ युद्ध शूर ।। २९०--विद्वान् पुरुष जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्मका आचरण करे । २९१-चारित्र की संपन्नता से सेलेशी भाव (चौदहवे गुणस्थान में होने वाली स्थिति विशेष) की उत्पत्ति होती है। २९२--चारित्र द्वारा ही आश्रव का निरोध किया जा सकता है। २९३-चारित्र मे अप्रमत्त शील होता हुआ उसके ( चारित्र के ) साई में आने वाले उपसर्गों को धैर्य के साथ सहन करता रहे । २९४-आत्मा का अनुसधान करने वाला चारित्र शील हो । २९५-सब तरह से प्रपच से दूर रहता हुआ मुनि जीवन-व्यवहार चला। २९६-सब प्रकार से विप्रमुक्त होता हुमा मुनि जीवन-व्यवहार चलादे। . २९७-(साधु ) आतरिक शोक का परित्याग करके निरपेक्ष हाता हुआ परिवजा शील हो। २९८-( सज्जन ) धन को, ज्ञाति जनो को और आरभ को छोड़कर सुसवृत्त याने आत्म निग्रही होता हुआ विचरे । २९९-काय (जीव-समूह) छः प्रकार का कहा गया है। इसके अतिरिक्त अन्य (काय) कोई नही पाया जाता है। ३.०--विषयो के प्रति आसक्ति का निरोध करने से मोक्ष की प्राप्ति -, होती है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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