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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद] [३१३ १८४-अकेली आत्मा पर ही विजय प्राप्त करो, यही सर्व श्रेष्ठ . विजय है। . १८५-एकान्त सम्यक् दृष्टि वाला अपरिग्रही ही है, और वह लोक का स्वरूप समझ कर उसके वश मे नही जावे ।। १८६–यहाँ पर मोह बार बार (आकर्पित करता रहता) है। १८७-इस मोह से उपरत- ( दूर ) होता हुआ मेधावी सभी पाप कर्म को जला डालता है। १८८-धीर पुरुप इन अभिमान- मद के कारणो को दूर कर दे। १८९-ज्ञानी के लिये यही सार है कि वह किसी की भा हिंसा नही करता है। -१९०-जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट यह धर्म ही ध्रुव है, नित्य है, गाश्वत् है। १९१-राग द्वेप रहित हो, किन्तु कठोर हो तो ऐसे वचन नही बोले । १९२-अल्प आहार करने वाले के आर इन्द्रियो का दमन करने वाले के चित्त को राग रूप शत्रु नही जीत सकता है। -१९३-धीर पुरुप राग द्वेप को अत करने वाली क्रियाओ का सेवन करते है, इसलिय यहां पर वे अन्त करा याने चरम-शरीरी कहलाते है। १९४-कृत कर्मो को ( भोगे विना ) मोक्ष नही है । १९५-कर्म करने वालो का मोक्ष नही है । '१९६-कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है । १९७--(यह आत्मा) अनेक वार कतरा गया, फाडा गया;छेदन किया गया, आर उत्कर्तन-याने चमडी उतारी गई ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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