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________________ -शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३११ १६८ – आज्ञाकारी लज्जा वाला, एकान्त सम्यक् दृष्टि पुरुष अमायाको होता है - निष्कपट होता है । १६९ -- शान्ति द्वारा क्रोध का नाश करे । १७० -- जैसे पक्षी नष्ट हुए फल वाले वृक्ष को छोड़ कर चले जाते हैं. वैसे ही भुक्त भाग भी पुरुष को छोड़ देते है । ( भोगो से क्षीण होकर अंत में पुरुष मर जाता है | ) ए १७१ – दु.ख का अनुभव अकेले को ही आर खुद को ही करना पडता ' १७२ – अकेला धर्म ही रक्षक है, अन्य कोई यहाँ पर रक्षक नही पाया जाता है । १७३ - एकाग्र रूप से मन का सनिवेश करने से चित्त निरोध होता है १७४ - एकत्व भावना की ही प्रार्थना करो । १७५–यह लोक ज्वर के समान एकान्त दुख रूप ही है । १७६ - वश में नहा किया हुआ आत्मा एक शत्रु रूप ही है, इसा प्रकार केपाय और इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप ही है १७७ - प्राणी अकेला ही जाता है और अकेला ही आता है । १७८ - में अकेला ही हूँ, मेरा काई नहा है, और मैं भी किसी का नही हूँ । १७९ - एक ही आत्मा है । १८० - एक ही चारित्र है । १८१ - एक के जीत लेने पर पाँच जीत लिये जाते है, पाँच के जीन लेन पर दस जीत लिए जाते हैं । १८२ - एक ही ज्ञान है । १८३ – अकेला स्वय हा दुःख का अनुभव करता है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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