SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [ ३०६ ही थे 1 वर १२३ – प्रभु महावीर सदैव आत्मा को गोपने वाले पुरुष सदा आत्मा को वश मे करने वाले ही होते १२४ - (सात्विक वातो का ) आचरण करना ही सब से अधिक है ) - 1 दुर्लभ है | १२५ - ( शिष्य ) अनत ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी आचार्य के प विनय पूर्वक ही वैठे । १२६ - आचरण-योग्य धर्म को जान करके सभी दुख नाग किये ज सकते हैं । १२७ - आदान पर यानी आश्रव पर गुप्ति रखने वाला ससार से (कप्लाट्र से) विमुक्त हो जाता है | } J १२८ - ( ज्ञानी) आश्रव और बघ का स्वरूप जानकर साधुता रूपा पर्या द्वारा उन्हें दूर करता है | १२९ - आतक दर्शी - (सम्यक्त्वी ) पाप नही करता है । १३०—–जीवितार्थी - (आत्महितपी) लोभ नही करे । १३१ - ज्ञानी के शरण में जाओ । १३२ - ज्ञानी का मार्ग ही श्रेष्ठ है और ( वही ) समाधि चाला है १३३—–काम-भोग आरभ से भरे हुए ही होते है, इसलिये वे दूख के विमोचक नही हो सकते हैं । १३४ - - सुव्रती ज्ञानी, आरभ के कामो से दूर रहें ।, १३५-आलोचना से ऋजु भाव-याने निष्कपटता के भाव पैदा होते हैं । - १३६ - इन्द्रिय रूपी चोर के वश मे - ( पडी हुई ग्रात्मा ससार में ही भ्रमण करती है । - - १३७ - (जो ज्ञानी है, वह ) आवर्तन रूप ससार को और श्रुति अदि इन्द्रियो के विषय के पारस्परिक सबघ को भलीभांति जानता है । १३८ - शास्त्रो का ज्ञाता आवर्त्तन रूप ससार को देख कर यहाँ प पाप-कामो से दूर हो जाय ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy