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________________ 'वान्दानुलभी अनुवाद] २९७ ५९-न्मो मे गृद्ध (मृच्छित)-और-अनि ग्रह वाली (अजीतेन्द्रिय)आत्मा मूल से वधन को ( कर्मो को ) नही काट सकती है। ६.नहीं है मम कक्ष देसरा चक्र जिसके, एसे सघ रूप चक्र की सदा जय हो। ६५--अपनी आत्मा द्वारा ही सत्य का अनुसवान करो। - ६२-ला स्वय को शिक्षा देने के लिये समर्थ नहीं है, वह अन्य का शिक्षा देने के लिये कैमे समर्थ हो सकता है ? ६३-जो काम-भोगो से अप्रमन है वही पाप-कर्मो से उपरत है ३४-अप्रमादी होता हुआ नित्य नयम मे प्रवृत्त रहे। ६५-अप्रमादी होता हुआ ही बिचरे । ६६-अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला अप्रमादी होता हुआ हा । विचरे। ___६७-अल्प आहार वाला होता-हुआ तितिक्षा वाला होवे, सहनशीलता . - वाला हो । ६८-दृ.बो का अथवा सुखो का कत्ती या अकत्ता आत्मा ही है । ६९-आत्मा ही इच्छा पूत्ति करने वाली काम-वेनु है आर अपनी मात्मा ही नदन वन है। ७०-आत्मा को जीतकर ही सुख प्राप्त करो। ७१--आत्मा से ही-( आत्मन्थ कपायो से ही ) युद्ध करो, याहयुद्ध से तुम्हे क्या,( प्राप्त होने वाला है ) ? । 5. ७२–दमन करने वाली आत्मा ही मुखी होती है । जथवा आत्मा का ( आत्मस्य कषायो का) दमन करने वाला ही सुखी होता है। ७३-आत्मा ही वेतरणी नदी है और अपनी आत्मा ही कूट-शाल्मली वृक्ष है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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