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________________ शब्दानुक्षी अनुवाद ] [ २९३ ३२ – अनिह ( क्रोव आदि से रहित ) होना हुआ स्पर्श किये हुए ( प्राप्त हुए उपसर्गो को ) सहन करे । ३३ - अनुत्कर्ष वाला ( किसी भी प्रकार का अहकार नही करने वाला), अप्रलीन वाला ( आसक्ति रहित वाला), मुनि मध्यस्थ भाव से ( तटस्थ भाव से ) विचरे । -३४ - अनुचितवन करके (गभार विचार करके ) बोले । ३५ - अनुत्तर (श्रेष्ठ) ज्ञान के धारण करने वाले, यशस्वी होते हुए ऐसी गोभा पाते है (ऐसे प्रकाश गील होते है ) जैसा कि सूर्य अन्तरिक्ष मे ( आकाश में ) । ३६ - जिनेन्द्रो का ( राग द्वेष जीतने वालो का ) यह अनुत्तर (श्रेष्ठ) धर्म है, और इसके नेता, मुनि आशु प्रज्ञ ( शीघ्र बुद्धिवाले ) काय है | ( प्रभु महावीर द्वारा यह शासित है ) ३७ - (वे महावार स्वामी) सारे जगत् में अनुत्तर है ( श्रेष्ठ है ) बिज्ञ ! 7 J है, ग्रथि से ( कषाय और परिग्रह से रहित है ) अतीत है, अभय हैं और अनायु (परम शरीरी ) है । ३८-- महपि न तो उन्नत ( अभिमानी ) हो और न अवनत ( दुख से दीन) हो । } ३९ - प्राणियों के साथ अनुपूर्व रीति से ( क्रम ने) सयम शील हो, ( यत्न वाला हो) । C ४० – अनुपशान्त द्वारा (जिसका कपाय शान्त नही हुआ है, ऐसे मनुष्य द्वारा ) इन्द्रिय- दमन रूप सागर, (पार कर लेना) दुष्कर है । ४१ – अनुशासन में ही ( भगवान की आज्ञा मे ही ) पराक्रम शील हो । ४२ - अनुशासित किया जाता हुआ ( उपदेश दिया जाना हुआ) क्रोत्र नही करे । 1 ४३ – पूर्ण दर्शी (उच्च ज्ञान - चारित्र वाला) पाप कर्मों से निवृत्त ही होता है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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