SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] २९१] १८- - आत्मस्थ हेतु - ( मिथ्यात्व आदि ) निज का बन्ध करने वाले है और बंध को ससार का हेतु कहते हैं । १९ - जो अध्यात्मरत्त सुसमाधि वाली आत्मा है, वही भिक्षु है । २० – पूतना ( रोग विशेष ) से जैसे तरुण वालक ( दुखी होते है ) वैसे ही कामो से - ( भोगो से ) विषयो मे आसक्त ( आत्माएं दुखी होती है ) २१ - मूढ आर्त्त ( आर्त्तध्यान सबधी कामो ) मे अजर अमर की तरह ( फसे हुए है ) -२२–प्रत्याख्यात अनगार ( प्रतिज्ञा लिया हुआ साधु) प्राप्त करे | ( निर्मठ आत्मावाला होता है ) | -२३ – अनगार का चारित्र धर्म दो प्रकार का है, सराग सयम और वीतराग सयम | ( २४---जो अनर्थ रूप हैं, उन्हे सर्वथा परिवर्जित कर दे | -२५ – अनाविल ( पाप रहित ) अथवा अकषायी ही भिक्षु - २६ किचित् भी अनागत नही है ( यानी कोई भी पदार्थ 1 छोड दे ) होता है | ऐसा नही हैं, जो कि पहले नही मिला' हो' ) अंत मेरे राग को दूर करने के लिये श्रद्धा ही समर्थ है | २७–अव्यावाध सुख का आकांक्षी ( मोक्ष का अभिलापी ) गुरु की प्रसन्नता के अभिमुख होता हुआ रमए करे । ( गुरु की आज्ञानुसार चलता रहे। ) -अनासक्त होता हुआ जो काटो को ( कप्टो को ) सहता है, वही पूज्य है । ? २९–अनित्य ( नायवान् ) जीव-लोक में क्यो आभक्त रहता है ३० -सुख शील जाति वालो के साथ यह वास, अनित्य है । ३१ – अनिदान भूत होता हुआ (आश्रव रहित होना हुआ) जीवन व्यवहार चलावे | २८
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy