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________________ ब्दानुलक्षी अनुवाद] १-अकल्पनीय ग्रहण नहीं करे। २-वीर पुत्प अकर्म द्वारा, ( आश्रव रहित होकर ) कर्म त अय कर देते है। -अकर्तव्य का परिवर्जन कर दे। ४-भिक्षु सदा अकुगील हो, ससर्ग वाला नहीं हो। ५-अकर्ता होता हुआ नवीन ( कर्म वाला ) नही है। ६-अक्रोवी, मत्य रत, शिक्षा भील ( होता है । ४-अकोबी, सत्य रत तपस्वी ( होता है ) ८-वे अकोविक दुन्द को नहीं तोड़ सकते है, जैसे कि शकुनि : (पक्षी) पीजरे को। ९-अगुणप्रेक्षी मवर को नहीं मारापता है। १०-अगुणी का मोभ नहीं है। ११- अगुप्त अनाना वाला है । ( अगुप्ति वाला आना से .. . रहित होता है) १६-मेरे द्वारा भापित यह वाणी अत्यन्त निदान क्षमा (कर्म काटने में अत्यन्त समर्थ ) है । १४-न्यागी अपनी आत्मा को अनुशासित करे । १४-अयन्ना पूर्वक भोजन करता हुआ प्रागियो की, और भूतो की हिना करता है। १५-~-अयत्नापूर्वक चलता हुआ प्राणियो की, और भूतो को हिला करता है। १६-वे (मुक्त जीव ) अजर है, अमर है और असग है । ( निरन्त निराकार है ) १९आर्य कर्मों को ( श्रेष्ठ कामो को ) करो।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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