SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ ( ६ ) विवत्ती श्रविणीश्ररूम, संपत्ती विणिस्स अ । द०, ९, २२ द्वि, उ, टीका - अविनीत आत्मा को सदैव इस लोक दुख ही दुख मिलता है, तथा विनीत आत्मा को ओर पर लोक मे सुख ही सुख मिलता है । t ( ७ ) गिहे दीव मपासंता, पुरिसा दागियानरा । सू०, ९, ३४ 'टीका - भोगों में फँसे हुए रहने की हालत में न तो ज्ञान रूप दीपक के प्रकाश की प्राप्ति हो सकती है, और न चारित्र रूप द्वीप ही ससार - समुद्र की दृष्टि से प्राप्त हो सकता है । इसीलिये परमार्थ की आकाक्षा वाले पुरुष आध्यात्मिक पुरुषो की शरण लेते है । ( ८ ) की लेहिं विज्यंति असाहु कम्मा । , [ प्रकीर्णक-सूत्र सू०, ५, ९, उ, १ " टीका - पापी नाना प्रकार के दुख पाते है, नरक- आदि गति' मे कील आदि तीखे शस्त्रो से पीड़ित किये जाते है, परमं अधार्मिक देवता उन्हे घोर पीड़ा पहुँचाते है, ऐसा शास्त्रीय विधान है । (':'); और पर लोक में सदैव इस लोक, थति लुप्पंति तस्संति कम्मी । .. सू०, ७, २० टीका - पाप कर्म करने वाले प्राणी पाप का उदय होने पर * · $ , असह्य वेदना होने पर रोते है, तलवार आदि के द्वारा छेदन किये जाते है और नाना विधि से डराये जाते है, भयभीत किये जाते है .
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy