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________________ २६८] [ संसार-सूत्र अणिच्चे जीव लोगम्मिकि पसज्जसिा उ०, १८, १२ टीका-इस अनित्य, नाशवान और दुख पूर्ण ससार में क्यो “आसक्त होते हो ? क्यो इसमे मच्छित हो रहे हो ? आत्मा के स्वरूप को क्यो भूल रहे हो? (१२) अणाग नेव य अथिकिंचि, सद्धा खमणे विणइत्तु राग । उ०, १४, २८ टीका-~-संसार मे ऐसा कोई पदार्थ वाकी नही रहा है, जो कि जीव को अतीत के जन्म-काल मे, पूर्व जन्मो में न मिल चूका हो। इसलिये राग-द्वेप को, रति-अरति को, वासना और विकार को मूर्छा और माया को हटाकर धर्म मे, तप और सयम मे पूर्ण श्रद्धा तथा पराक्रम रखना चाहिये । (१३) चउबिहे संसारे, दत्र संसारे, खेत्त संसारे, काल संसारे, भार संसारे । ठाणा०, ४, था, ठा, उ, १, ३१ ।। टीका-~ससार चार प्रकार का कहा गया है ---द्रव्य ससार, क्षेत्र ससार, काल ससार और भाव ससार । १---जीव द्रव्यो और सुद्गल द्रव्यो का परिभ्रमण ही द्रव्य ससार है। २-चौदह राज लोक जितना लोकाकाश ही क्षेत्र ससार है । ३-दिन रात्रि आदि से लगाकर पल्योपम सागरोपम आदि तक की परिभ्रमण अवस्था ही काल ससार है। ४-~-ससारी आत्मा मे कर्मोदय से पैदा होनेवाले विभिन्न राग-द्वेपात्मक विचार ही भाव ससार है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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