SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ ] [ संसार-सूत्र (४) उज्झमाणं न बुज्झामो, राग दोसाम्गिणा जग। उ०, १४, ४३ टीका-राग और द्वेष की अग्नि से जलते हुए ससार को हम नहीं पहिचान रहे है-अर्थात् आत्मा मे स्थित राग और द्वेष का हम विचार नही कर रहे है, यह एक लज्जा जनक और दुख जनक बात है । संसारो अण्णवो वुत्तो। उ०, २३, ७३ टीका-ससार एक भयकर समुद्र है, जिसमे कषाय, विषय, वासना, विकार, मूर्छा, परिग्रह, मोह और इद्रियभोग आदि भयकर और विषम एव विनाशकारी जलचर प्राणी है, जो कि भव्य आत्मा को निगलने के लिये तैयार बैठे है । सारीर माणसा चेव, वेयणा उ अणंतसो। उ०, १९, ४६ ___टीका-इस ससार मे शारीरिक और मानसिक वेदनाऐ अनन्त प्रकार की रही हुई है । कर्मोका उदय आने पर प्रत्येक आत्मा को इन्हे भोगना ही पड़ता है। महन्भयाओ भीमाओ, नरएसु दुह वेयणा । उ०, १९, ७३ ___टीका--नरक स्थानो मे महाभय उत्पन्न करनेवाली, सुनने मात्र से ही भय पैदा करने वाली, प्रचड और नानाविध दुःख रुप वेदनाएं है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy