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________________ प्र २६२ ] ( २८ ) अन्नाणिया नाणं वयंता वि निच्छयत्थं न याणंति सू०, १, १६, उ, २. टीका -- अज्ञानी आत्माऐ यानी सासारिक मानने वाली आत्माऐ ज्ञान सबधी चर्चा करती अर्थ को नही जानती है। सच्चे मार्ग को या जानती है । ( ३० ) अन्न पत्ते धणा मेसमाो, पप्पोति मच्छु पुरिसे जरं च । [ बाल- जन-सूत्र ( २९ ) अपणो य पर नाल, कुतो अन्नाणु सासिउं । सू०, १, ११७, उ, २. टीका - अज्ञानी पुरुष या भोगी पुरुष जब स्वय को भी ज्ञान देने में समर्थ नही है, तब वे अन्य को तो ज्ञान दे ही कैसे सकते है ? भोगी -पुरुषो द्वारा स्व पर हित की साधना नही हो सकती है । भोगो में ही सुख हुई भी निश्चित मोक्ष मार्ग को नही ( ३१ ) पवढ्ढती वेर मसंजतस्स । उ० १४, १४ टीका - दूसरो के लिये दूषित प्रवृत्ति करने वाला और धन कमाने मे ही जीवन समाप्त कर देने वाला अन्त में बुढापा तथा को प्राप्त कर असह्य कष्टो को प्राप्त होता है । मृत्यु उ०, १०, १७ टीका-जो अपनी इन्द्रियों और मन पर काबू नही रखता है, वह असयमी है । प्रतिदिन विभिन्न प्राणियों के साथ असयम के कारण उसका वैर-विरोध और शत्रुता बढती रहती है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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