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________________ २६०] बाल-जन-सूत्र (२१) बद्ध विसय पासहि, मोह मावज्जइ पुणो मंदे। सू०, ४, ३१, उ, १ टीका-विपय-वासना रुपी जाल में फंसा हुआ मूर्ख मनुष्य बार बार मोह को प्राप्त होता है। वह आत्मा का स्वरूप भूल जाता है, और ससार में अनेक जन्म-मरण की वृद्धि करता है, नाना तरह के प्रतिकूल सयोग-वियोग को वह प्राप्त करता (२२ ) रागदोलस्सियो बाला, पापं कुब्वति ते बहुं । सू०,८,८, . टीकाराग-द्वप के आश्रित होकर तथा मूर्छा और ममता में पड़ कर, मूर्ख जीव या अज्ञानी और स्वार्थी जीव नाना प्रकार के पाप कर्म और जघन्य कर्म-करते रहते है। वे अत में दुःख प्राप्त होने पर पश्चात्ताप करते है । (२३) कूराई कम्माई बालेपकुब्बमायो, तेण दुवखेण संमूढे विप्परियास मुवेइ । आ० २, ८१, उ, ३ टीका-जो मद बुद्धि वाला है, जो मूर्ख है, ऐसा बाल प्राणी क्रूर कर्म करता है, घोर पाप पूर्ण कर्म करता है । अत मे उन कर्मों के कारण उत्पन्न दुख से वह मूढ होता हुआ, हित-अहित के विवेक से शून्य होता हुआ विपर्यास स्थिति को प्राप्त होता है, राग-द्वेष के चक्कर मे फस जाता है। इस प्रकार मूढ बुद्धि वाले की ससारपरम्परा चक्रवत् चालू ही रहती है। '
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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