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________________ __ . जैन धर्म वर्ण व्यवस्था की विकृति को हेय-दृष्टि से देखता है, इसके विधान में मानव मात्र समान है । जन्म की दृष्टि से न तो कोई उच्च है और न कोई नीच, किन्तु अपने अपने अच्छे अथवा वुरे आचरणो द्वारा ही समाज में कोई नीच अथवा कोई उच्च हो सकता है । छूत-अछूत जैसी घृणित "वर्ण-व्यवस्था का जैन-धर्म कट्टर शत्रु है। मानव-मात्र अपने आप में स्वयं एक ही है । मानवता एक और अखड है । सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विधि-विधानो का मानव-मात्र समान अधिकारी है। ___जाति, देश, रग, लिंग, भापा, वेश, नस्ल, वश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल मै मानव-मात्र एक ही है । यह है जैन-धर्म की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन-धर्म की महानता को सर्वोच्च "शिखर पर पहुंचा देती है। ___जा व्यक्ति जैन-धर्म को केवल निवृत्ति-प्रधान बतलाता है, वह अपरि-मार्जनीय भयकर भूल करता है । जैन-धम सात्विक और नैतिक प्रवृत्ति का विधान करता हुआ, सस्कृति तथा जीवन के विकास के लिये विविध पुण्य के कामो का स्पष्ट उल्लेख और आदेश देता है । कुशल शासक, सफल सेनापति, योग्य व्यौपारी, कर्मण्य सेवक, और आदर्श गृहस्थ बनने के लिये जैन धर्म में कोई रुकावट नही है । इसीलिये विभिन्न काल और विभिन्न क्षेत्रो में समय समय पर जैन-समाज द्वारा संचालित आरोग्यालय, भोजनालय, शिक्ष‘णालय, वाचनालय, अनाथालय, जलाशय और विश्राम-स्थल आदि आदि -सत्कार्यों की प्रवृत्ति का लेखा देखा जा सकता है। लावण्यता और रमणीयता सयुक्त भारतीय कला के सविकास में जैन -सस्कृति ने अग्र भाग लिया है, जिसे इतिहास के प्रेमा पाठक बखूवा जानते है । आत्म तत्व और ईश्वरवाद इस्वा सन् एक हजार वर्ष पूर्व से लगा कर इस्वी सन् बीसवी शताब्दि तक के युग में यानी इन तीन हजार वर्षों में भारतीय साहित्य के ज्ञान-सम्पन्न प्रागण मे आत्म तत्त्व और ईश्वरवाद के सम्बन्ध में हजारो ग्रंथो का निर्माण
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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