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________________ सूक्ति-सुधा] [२२७ प्रासुरत्तं न गच्छिज्जा, सुच्चाणं जिण-सासगां। द०, ८, २५, टीका-जिन-शासन यानी जैन धर्म के सिद्धान्तों का रहस्य समझ कर कभी किसी पर क्रोध नही करे । क्रोध विवेक को भ्रष्ट करने वाला है, बुद्धि को उलझन में डालने वाला है, प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का भेद नही करने वाला है । क्रोध कलह को पैदा करने वाला है और अत मे दुर्गति का दाता है। नहुमुखी कोवपरा हवन्ति । . उ०, १२, ३१ टीका-मुनि, आत्मार्थी कभी क्रोव नही करते है। संयमी कषाय-भाव से दूर ही रहते है। . दुविहे कोहे-पाय पइदिए चेव, पर पइहिए . चेव । ठाणां०, २रा, ठा, उ, ४, ६ । - टीका-क्रोध दो प्रकार का कहा गया है-१ आत्म प्रतिष्ठित और २ पर-प्रतिष्ठित । स्वभाव से ही आत्मा में उत्पन्न होने वाला क्रोध तो आत्म-प्रतिष्ठित है और बाह्य-कारणो से आत्मा में उत्पन्न होने वाला क्रोध पर-प्रतिष्ठित है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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