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________________ स्वश्व में हम में से प्रत्येक को उसे अपने लिये सुलझाना है । उनका आदर्श, उनकी कष्ट सहिष्णुता, और ध्येय के प्रति उनकी अविचल दृढ निष्ठा हमें वल ओर सकेत प्रदान करती है । हमारे धैर्य को सहारा देती है, और बतलाती है कि यही मार्ग सच्चा है | इसी मार्ग द्वारा हम अवश्य सफल हो सकते है, बशर्ते कि हमारे प्रयत्न भी सच्चे हो । अब हमे यह देखना है कि भगवान् महावीर स्वामी ने जैन धर्म के रूप में विश्व संस्कृति के आचार क्षेत्र तथा विचार - क्षेत्र को क्या २ विशेषताएं प्रदान की है । अहिंसा की प्रतिष्ठा से मानव --- जाति का आज दिन तक जितना भी प्रामाणिक और विद्वत् मान्य इतिहास का अनुसंधान पूर्ण पता चला है, उससे यह निर्विवाद रूप सिद्ध होता है कि भगवान महावीर स्वामी द्वारा सचालित जैनधर्म के पूर्व इस पृथ्वी पर सपूर्ण मानव-जाति माँसाहारा थी, विविध पशुओ का मास खाने मे न तो पाप माना जाता था और न मासाहार के प्रति परहेज ही था एव न घृणा ही । ऐतिहासिक उल्लेखानुसार सर्व प्रथम "मानव-जाति में से मासाहार को परित्याग कराने की परिपाटी और परपरा" प्रामाणिक रूप से तथा अविचल दृढ श्रद्धा के साथ जैन-धर्म ने ही प्रस्थापित की । - ज्ञान-वेल पर और आचार-वल पर मानव जाति को मासाहार से मोडने का सर्व प्रथम श्रेय जैन-धर्म को ही है । इस प्रकार विश्व धर्मों की आधारशिला एवं प्रमुगतम सिद्धान्त अहिंसा ही है तथा अहिंसा ही हो सकती है । ऐसी महान् और अपरिवर्तनीय मान्यता मानव-जाति में पैदा करने वाला सर्व प्रथम धर्म जैन-धर्म ही है, इस ऐतिहासिक तत्त्व को विश्व के गण्य मान्य विद्वानो ने सर्व सम्मत सिद्धान्त मान लिया है। जैनेतर धर्म अहिंमा की इतनी सूक्ष्म, गभीर और व्यवहार योग्य योजना प्रस्तुत नही करते हैं, जैसी कि जैन धर्म करता है । · जैन धर्म ने अपने कठिन तप-प्रधान आचार-वल के आधार पर आर अकाट्य तर्फ गयुक्त ज्ञान-वल के आधार पर सपूर्ण हिन्दूधर्म वनाम वैदिक धर्म पर और ग् हान् व्यक्तित्व शील बौद्ध धर्म पर ऐसी ऐतिहासिक अमिट छाप डाली
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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