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________________ २०८ ] ( १६ ) जे माण दसी से माया दंसी । आ०, ३, १२६, उ, ४ टीका–जो मान वाला है, उसके हृदय में कपट है ही । जिसके हृदय में मान होता है, उसके हृदय में कपट भी होता ही है । मान और माया का सहचर सम्बन्ध है । ( १७ ) माणो विज्ञाय नासणो । - द०, ८, ३८ [ कषाय-सूत्र टीका- - मान विनय का नाश करता है, नम्रता को दूर भगाता है । मान से आत्मा मे गुणों का विकास होना रुक जाता है । ( १८ ) आत्तणं न समुक्कस | ८०, ८, ३० टीका - अपने आपको बडा नही समझे, यानी अहकार का सेवन नही करे । अहकार सेवन से आत्माकी उन्नति रुकती है, ज्ञान- दर्शन और चारित्र मे बाधा पहुँचती है, एव मरणात मे दुर्गति की प्राप्ति होती है । ( १९ ) न बाहिर परिभवे । द०, ८, ३० टीका – कभी किसी को तिरस्कार नहीं करे । तिरस्कार करने से पर के मर्म की हिसा होती है, तथा अपनी आत्मा मे मान- कषाय का पोषण होता है | ('२० ) सुश्रलाभे न मज्जिज्जा ! द० ८, ३०
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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