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________________ १९४] [ अनित्यवाद-सूत्र ( २५) मणला काय वक्केणं, णारंभी ण परिग्गही। मू०, ९, ९ टीका--आत्महित की कामना वाला पुरुष, मन, वचन और “काया से न तो आरंभी यानी तृष्णामय प्रयत्न वाला हो और न परिग्रही-यानी ममतामय संग्रह वाला हो । आरंभ और परिग्रह का त्याग करने पर ही आत्मा विकास की ओर गति कर सकती है। (२६) तिविहेणावि पाण माहणे। सू०, २, २१, उ, ३ टीका-मन, वचन और काया से प्राणियो की हिंसा नही करनी चाहिये । मन से किसी भी प्राणी के लिये अनिष्ट और घातक विचार अथवा षड्यन्त्र नही सोचना चाहिये। वचन से किसी भी प्रागी के लिये मर्म घातक या कष्ट दायक शब्द नही वोलना चाहिये। - काया से किसी भी प्राणी को कष्ट, हानि अथवा मरणान्त दुख नहीं पहुँचाना चाहिये । यानी तीनो योगो से प्राणी मात्र के लिये हित की ही कामना करनी चाहिये, इसी में कल्याण है। (२७) झाण जोगं समाहा काय विउसेज्ज सव्वसो। ___सू०, ८, २६ टीका-आत्मार्थी पुरुप अथवा परमार्थी पुरुप, ध्यान-योग को हग करके, चित्त वृत्तियो को सुस्थित और एकाग्र करके, सव प्रकार से शरीर को बुरे व्यापारो से रोक दे । शरीर-कार्यों को एकान्त रूप से न्व-पर सेवा में लगा दे। इस प्रकार स्व-पर कल्याण में ही मग्न हो जाय।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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