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________________ १८२] [प्रशस्त-सूत्र टीका-कर्म का भेदन करने में समर्थ महापुरुप उस महान् __ मार्ग से चलते है, जो मोक्ष के पास ले जाने वाला है, जो ध्रुव है। और जो सिद्धि मार्ग है। (१८) नोवि य पूयण पत्थए, सिया। ०, २,१६, उ, २ टीका-जिसका ध्येय एक मात्र स्व-कल्याण और पर-सेवा ही है, उसको स्व-पूजा-और स्व-अर्चना की भावना से विल्कुल दूर ही रहना चाहिये। गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरया तिन महोघ माहिय । 1. सू०, २, ३२, उ, २ टीका-गुरु की-अनासक्त महात्मा की एव ज्ञान-चारित्र सम्पन्न __ महापुरुप की आज्ञा मे चलकर और विषय-कषाय से तथा वासनाओ से रहित होकर अनेक सरल आत्माओ ने इस महासागर रूप ससार को पार कर लिया है। (२०) सासयं परिणिन्धुए। उ०, ३६, २१ टीका--जो पुरुष वीतरागी होते है, जो राग द्वेप से रहित होते हैं, जो आश्रव-भाव से दूर रहते है, वे ही शाश्वत् . अवस्था को प्राप्त होते हैं, वे ही मुक्ति स्थान को प्राप्त करते है । (२१) अप्पमत्तो कामेहिं उवरओ पावकम्महि । आ०, ३, ११०, उ, १
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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