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________________ १८० ] [ प्रशस्त सूत्र. होते है, आत्मा ऊंचे दर्जे के विकास भाव को प्राप्त होती है । आत्मा अनत वलशाली और अनंत गुणशाली बनती है । ( ११ है - सम्मग्गं तु जिराक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे । N उ०, २३, ६३ टीका - संम्यक् मार्ग और मोक्ष मार्ग, भगवान वीतराग प्रभुः श्री जिनदेव का बतलाया हुआ ही है । यही मार्ग उत्तम है, यही श्रेष्ठ है, यही कल्याण कारी है और यही मोक्ष का दाता है । ( १२ ) अणुत्तरे नाणधरे जसंसी, ओभासई सूरि एवं तलिक्खे। उ०, २१, २३ 1 टीका - सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर 'आत्मा; सर्वोत्तम और अप्रतिपाती केवलज्ञान का धारक होकर पूर्ण यश को प्राप्त करता हुआ ऐसा शोभा पाता है, जैसा कि आकाश मे सूर्य । ( -१३ ) . अधमत्तो जए. निच्चं । द०, ८, १६. 1,1 'टीका - प्रमाद पाप का घर है, इसलिये सदैव अप्रमादी रहना चाहिये, कर्मण्यशील रहना चाहिये, यानी सत्कार्य, सेवा में ही लगे रहना चाहिये । अप्रमाद से इन्द्रियो और मन पर नियंत्रण रहता है । इससे कषाय और विकार जीतने में मदद मिलती है । कर्मण्यता जीवन का शृङ्गार है — भूषण है । IS (१४ )' अच्चन्त' नियागा' खमा, एसा मे भासिया वई । २० 9/ 63 7 ד 3
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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