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________________ सूक्ति-सुवा ] [. १७३ है और अक्लेशकर भी है, इसलिये ज्ञानी को स्याद्वाद मय भाषा ही बोलना चाहिये ।' ( ४२ ) कहं धीरो अहे श्रहिं, उम्मत्तो व महिं चरे । उ०, १८, ५२ टीका—घर्य शाली और विचार शील महापुरुष घर गृहस्थी का,परिग्रह का, सुख का और वैभव का त्याग क्या बिना कारण ही और क्या बिना विचारे ही करते हैं ? पृथ्वी पर उन्मत्त की तरह क्या बिना कारण ही घूमते रहते है ? नही, उनके विचारों के पीछे ठोस आत्म बल, नैतिक पृष्ठ भूमि और आध्यात्मिक विमल' विचारो का आधार होता है । इसलिए साधारण पुरुषों को उनका अनुकरण निश्शक होकर करना चाहिए ।' ( ४३ ) S विगय संगामो भवाओ परिमुच्चप । ९, २२ टीका—जिस आत्माने कर्मों और विकारो के साथ सग्राम कर, उन पर विजय प्राप्त कर ली है, यानी अब संसार में जिस आत्मा की किसी के भी साथ कषाय-रूप सग्राम नहीं रहा है, जो आत्मा विगत कषाये हो गई है, "वह ससारं बघन से शीघ्र ही छूट जाती है । E (४४) आयगुत्ते संयादंते, छिन्नसोप अणासवे । ० सू०, ११, -२४,- -
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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