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________________ १७० ] [ महापुरुप सूत्र और न दुख से दीन हो । दीनता और हीनता से आत्मार्थी सदैव दूर रहे | ( ३२ ) उणी सयई सिंयं रय, एवं कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे । सू० २,१५, उ, १ टीका -- जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूल को गिरा देती है, उसे झाड देती है, उसी तरह से तपस्वी महात्मा भी अपने पूर्व-कृत कर्मों को अपने सत्कार्यो द्वारा झाड़ देते है, उन्हे अलग कर देते है । ( ३३ ) - चिच्चा वित्त च णायओ, आरंभं च सुसंवुढे चरे । सू० २,२२, उ, १ टीका -- आत्मार्थी के लिये यही सुन्दर मार्ग है कि धन, ज्ञातिवर्ग, माता-पिता आदि को और आरंभ - परिग्रह को छोड़ कर उत्तम सयमी वन कर जीवन व्यवहार चलावे । ( ३४ )पूया पिट्टतो कता, ते ठिया सुसमाहिए । सू०, ३, १७, उ, ४ टीका — जिन्होने स्व-पूजा, अपनी यग. कीर्ति, सन्मान आदि की इच्छा का त्याग कर दिया है, वे ही सुसमाधि मे स्थित है ऐसे ही पुरुषो की इन्द्रियां और मन उनके वश में है । ( ३५ ) सुन्वते समिते चरे । सू, ३, १९, उ, ४
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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