SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्ति-सुधा ] [ १६३ मूर्ख तो भोगों में फस जाता है और अत में जाल में फसी हुई मछली के समान दुख पाता है । ( ५ ) मेधाविणो लोभ मयावतीता । सू०, १२, १५ टीका - - बुद्धिमान् पुरुष लोभ से दूर रहते है । ज्ञानी तृष्णा के जाल में नहीं फसते है । और इस प्रकार अपनी वीतराग भावना की वृद्धि करते रहते है | ( ६ ) अंताणि धीरा सेवंति, तेगा अंतकरा इह | सू०, १५, १५ टीका -- महापुरुष विषय और कषाय का अन्त कर देते हैं, इसलिये वे ससार का भी अत कर देते हैं, जहाँ त्रिषय और कषाय है, वही ससार है; और जहा ये नही हैं, वही अमर शान्ति है । .- ( ७ ) से हु चक्खू मणु हसाणं, जे कंखाए य अंतर | こ - सू०, १५, १४ टीका-जिस पुरुष को भोग की तृष्णा नही है, वहीं पुरुष सब मनुष्यो को नेत्र के समान उत्तम मार्ग दिखाने वाला 1 '( ८ )' जिदिए जो सहर, स पुज्जो द०, ९,८, तृ, उ टीका -- जितेन्द्रिय होकर, स्थित प्रज़ होकर, कर्म योगी होकर जो दूसरो के द्वारा बोले हुए दुष्ट और अनिष्ठ वचनों को भी अका-, रण सहता है, तथा सत्कार्य म मलग्न रहता है, वही पूजनीय है ·
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy