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________________ [ १५७ टीका—अनत शाति का इच्छुक भिक्षु अत्यधिक निद्रा और प्रमाद का सेवन नही करे, बल्कि शास्त्र मे निर्दिष्ट निद्रा से ज्यादा निद्रा नही लेवे । सूक्ति-सुधा C ४१ ) ( ४१ अलोल भिक्खू न रखेंखु गिज्झे । द०, १०, १७ - टीका - साधु - मर्यादा ग्रहण करके भिक्षु इन्द्रिय लोलुपता न रखे, इन्द्रियो के रसो मे गृद्ध न वने । भोगी और इन्द्रिय-लम्पट त हो । किन्तु रूखे-सूखे, नीरस ओर निस्वाद भोजन मे ही सतोष रखे । ( ४२ ) सामण्णं ' दुच्चर । उ०,१९,, २५ टीका — श्रमण-धर्म का पालना, साधु- वृत्ति का पालना, पाचो महाव्रतो की निर्दोप रूप से परिपालना करना अत्यंत कठिन है, तलवार की धार पर चलने के समान है । बल हीन आत्मा इस प्रशस्त और कल्याण कारी मार्ग पर नही चल सकता है | ( ४३ ) मज्जई । मुणी सू०, २, २, उ, २ टीका—सच्चा मुनि-महात्मा वही है, जो कि अहकार नहीं करता है, अभिमान नही करता है, बल्कि विनय, नम्रता, सरलता को ही जीवन का आधार बनाता है । ( ४४ ) 1 1 निरुप्रमो निरहंकारो, चरे भिक्खु जिणाहियं । सू०, ९, ६ टीका - भिक्षु ममता रहित हो, आसक्ति रहित हो, अभिमान.
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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