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________________ सूक्ति-सुधा - १४९ - (१२) सम्वे अण्डे परिवज्जयंते, अणाउल या अकसाइ भिक्ख । . .सू०, १३, २२, ____टीका-सब प्रकार के अनर्थों से बचता हुआ, सव प्रकार के व्यर्थ के कामो को छोड़ता हुआ; आकुलता रहित होकर और कषाय से रहित होकर भिक्षु-आत्मार्थो पुरुष अपना जीवन शाति-पूर्वक व्यतीत करे । सत्कार्य में ही-सलग्न रहे। -- निगंथा धम्म जीविणो। द०, ६, ५० टीका-बाह्य और आभ्यतर रूप से परिग्रह से रहित, वाह्य परिग्रह-सम्पत्ति-वैभव और आंतरिक परिग्रह कपाय-वासना आदि विकार, इन दोनो से रहित, ऐसे अनासक्त जीवी निग्रंथो का जीवन और इनका प्रत्येक क्षण, प्रत्येक श्वासोश्वास एव जीवन-क्रियाएँ संवरमय ही है, धर्म युक्त ही है। --- ___--- . निग्गथा उज्जु दंसिणो। .. द०, ३, ११ - . . . . . ___टीका-जो बाह्य और आभ्यतर परिग्रह से रहित है, ऐसे निर्ग्रन्थ ऋज़ दर्शी होते है । यानी उनके सामने केवल मोक्ष और सयम-मार्ग ही रहता है । निर्ग्रन्थो की वृत्तियाँ इधर उधर भोगो में भटकने वाली और तृष्णामय नही होती है। लद्धे विपिट्ठी कुबइ से हु चाई। . द०, २, ३
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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