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________________ श्रमण-भिक्षु-सूत्र (१) महुगार समा बुद्धा । द०, १, ५ टीका-आत्मार्थी और ज्ञानी महात्मा इस प्रकार जीवन-वृत्ति रखते है, जैसे कि मधुकर-भवरा रखता है। मध कर अनेकानेक पुष्पो पर जाकर मधु-सचय करता है, परन्तु एक भी पुष्प को पीड़ित नही करता है। यही वृत्ति ज्ञानी-साधुओं की भी समझनी चाहिये। (२) सम सुह दुक्ख सहे अजे स भिक्खू । द०, १०, ११ टीका-सुख-दुख दोनो यवस्थाओ में जो समभाव रखता है, राग द्वेप से और हर्प-शोक से परे रहता है, वही सच्चा साधु है, वहीं स्व -पर-तारक महापुरुप है। (३) रोइन नाय पुत्त वयणे, पंचासव संवरे जे स भिक्खू । द., १०, ५ टीका-ज्ञातपुत्र भगवान महावीर स्वामी के वचनो पर विश्वास लाकर, रुचि लाकर, पांच आश्रवोंको-१ मिथ्यात्व, २ अव्रत, ३ प्रमाद, ४ कपाय और ५ अशुभ योगो को जो रोकता है और निरन्तर सुमार्ग में ही लगा रहता है, वही भिक्षु है-वही महापुरुष है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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