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________________ सूक्ति-सुधा] ३ . (८७) नो अत्ता-आसाइज्जा, नो परं आसाइज्जा । __ आ०, ६, १९२, उ, ४ टीका-विचार-शील पुरुष न तो अपनी आत्मा को चिन्ता, शोक, व्याधि, उपाधि, अव्यवस्था, चचलता और चपलता आदि दुर्गुणो में डाले और न दूसरो की आत्मा को ही इन उपाधियों में डाले। सारांश यह है कि विद्वान् पुरुष न तो स्व को दु.खी करे और न पर को ही दुःखी करे । सभी को शाति पहुचावे । (८८) . . . सातागार वपिाहुए, : , उवसंते मिहे चरे। . सू०, ८, १८ - टीका-ज्ञानी आत्मा, मुमुक्षु आत्मा, सुख-भोग की तृष्णा नहीं करता हुआ, एवं क्रोध आदि को छोड़ कर शान्त होता हुआ माया रहित होकर विचरे। 7 पावाई मेधावी अज्झप्पेण समाहरे। । सू०, ८, १६ टीका-बुद्धिमान् पुरुष अपने पापो को धर्म ध्यान की भावना द्वारा और शुभ कार्यों द्वारा अलग हटावे । मार्यादा में रहने वाला, भले और बुरे का विचार करने वाला पुरुष पाप रूप अनुष्ठानों को धर्म-ध्यान की भावना द्वारा दूर कर दे। ___ एगन दिटठा अपरिग्गहे उ, खुझिज लोयरस वसं न गच्छे । । सू०, ५, २४, उ, २ . ,
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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