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________________ १३८] हा उपदेश-सूत्र ( ६७ ). . हसंतो नाभिगच्छेजा। द०, ५, १४, उ, प्र टीका-हसते हुए भी । नहीं. चलना चाहिये, क्योकि यह असभ्यता का चिह्न माना जाता है। , . , , . (६८ ) . . दव दवस्ल न गच्छेज्जा। ___ द०, ५, १४, उ, प्र टीका-जल्दी जल्दी अविवेक-पूर्वक नही चलना चाहिये। क्योकि इससे हिंसा अथवा ठोकर लगने का भय रहता है। . अकप्पियं न गिहिज्जा । द्र०, ५, २७, उ, प्र._____टीका--अकल्पनीय और मर्यादा के प्रतिकूल वस्तुओ की न्ही ग्रहण करना चाहिये । 'मर्यादा-भग ही पाप है ! इससे आसक्ति, आदि नाना विकारो के उत्पन्न हो जाने की सभावना रहती है। कुज्जा साहूहिं सथवं! . .. . . द०, ८,५३ टीका-साधुओ, के साथ, सज्जन और पर-उपकारी महा पुरुषो के साथ, सेवा-भावी नर-रत्नो के साथ परिचय करना चाहिये, उनकी संगति करना चाहिये। '' (७१) अणावाह सुहाभिकेखी गुरूप्पसायाभिमुहो रमिज्जा। द०, ९, १० प्र, उ,
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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