SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ । उपदेश-सूत्र ( ५३.). वरण जरा हरइ नरस्स। उ०, १३, २६ टीका-बुढापा मनुष्य के रूप-सौन्दर्य को हरता रहता है, इसलिये प्रमाद को छोड कर धर्म कार्यो मे और स्व-पर कल्याण कारी कामो मे चित्त को लगाना चाहिये। स्वार्थ के स्थान पर परार्थ ही प्रमुख ध्येय होना चाहिये । (५४) अणुसासियो न कुप्पिज्जा । उ०, १, ९ ___टीका--सुशिक्षा यानी हितकारी और शिक्षाप्रद वातो का उपदेश दिये जाने पर क्रोध नही करना चाहिये। ( ५५ ). वीरे आगमण सया परक्रमेज्जा । बा०, ५, १६९, उ, ६ i, टीका--जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के परिपालन मे वीर है, उसकी वीरता इसी मे रही हुई है कि वह आगम-धर्म के अनुसार जीवन मे सदैव पराक्रम करता रहे। जीवन के नैतिक-धरातल को अजोड वनावे । . सेवा और “सयम. के कोमो . में आसाधारण, पुरुप वने। ___ (५६) - निसं नाइवढेशा मेहावी। आ०, ५, १६९, उ, ६ टीका-जो बुद्धिमान है, जो तत्त्व दर्शी है, उसका कर्तव्य हैं कि वह भगवान महावीर स्वामी द्वारा एव वीतराग भगवान द्वारा
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy