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________________ ११२] [क्षमा-सूत्र टीका--प्रिय और अप्रिय, सभी वचनो को शातिपूर्वक सहन करना चाहिये । सहन शीलता ही गभीरता है, और गभीरता ही मानवता का एक अश है। अणिदे से पुढे अहियासए। सू०, २, १३, उ, १ - टीका-मुमुक्षु आत्मा, आत्मार्थी-पुरुप, कष्ट आने पर भी निस्पृह-होकर, समभाव-शील होकर उन कष्टो को सहन करता रहे, पर अपने कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित न हो। अप्पाहारे,तितिक्वए) आ०, ८:१९, उ, ८.. टीका बुद्धिमान् पुरुष अल्प-आहार करने वाला होवे । जिससे मालस्य आदि दुर्गुण, नहीं सतात्ने । तथा स्वाध्याय, में एंव अन्य। सात्विक प्रवृत्तियो में हानि न हो, इसी प्रकार , जीवन व्यवहार, में, : विरोधी परिस्थितियो के उपस्थित होने पर या प्रतिकूल सयोगो के कारण क्रोध का प्रसग उपस्थित होने पर भी क्षमा ही करता रहे। क्षमा-शील और धर्म शील ही रहें। अल्प-आहार का व्रत लेने पर क्षमा आदि गणो की वृद्धि होती है। fi , , मास सुव्वते ।। सू०, २, १३, उ, ३ टिका--सुव्रती यानी इन्द्रियो को और मन को वश मे करने वाला पुरुप प्रत्येक क्षण और प्रत्येक स्थान पर समता रक्खे।। हर्प-शोक से दूर रहे।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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