SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ [सद्गुण-सूत्र टीका-मानको, अहकार को मृदुता से और नम्रता से जीतना चाहिये । नम्रता से विरोधी भी नरम और अनुकूल हो जाता है। (५) माय अज्जव भावेण । द०, ८, ३९ टीका-माया को, कपट को सरलता से जीतना चाहिये । सरल हृदय मे ही ईश्वर का वास हैं। लोस संतोप्लयो जिण। द०, ८, ३९ ___टीका-लोभ को, लालचको सतोष से जीतना चाहिए । सतोष बराबर धन नहीं है । सतोपो ही सुखी है । और असन्तोषी सदैव दुखी है, चाहे वह धनी हो या निर्धन । असतोष की लहरे, तृष्णा की तरगे अनन्त है, उनका कभी अत ही नहीं आ सकता है। दुक्ख हयं जस्स न होइ मोहो, . मोहो हो जस्स न होडतहा। उ०, ३२,८ टीका-जिसकी आत्मा मे मोह नही है, उसे दुख नही हो सकता है । यानी मोह के अभाव मे दु ख का अभाव हो जाता है। इसी प्रकार मोह के नाग मे ही तृष्णा का नाश रहा हुआ है। जिसका मोह नष्ट हो गया है उसकी तृष्णा भी नष्ट हो गयी है। . (८) तण्डा हया जस्स न होई लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई उ०, ३२,८
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy